10th Class Hindi Chapter 4 Nakhun Kyo Badhte Hain?

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nakhun kyo badhte hai

दोस्तों इस पोस्ट में मैंने आपको बिहार बोर्ड 10th Class Hindi Chapter 4 Nakhun Kyo Badhte Hain पाठ का सारांश बहुत ही आसान भाषा में समझाने का प्रयास किया हूँ उम्मीद करता हूँ की ये पोस्ट आपको बहुत अच्छे से समझ आयेगा । अगर आप गणित विषय की तैयारी करना चाहते हैं तो आप हमारे Youtube Channel Unlock Study पर जाकर कर सकते हो ।

📚सारांश: “नाखून क्यों बढ़ते हैं” 📚

लेखक: हजारी प्रसाद द्विवेदी

हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह निबंध सतही रूप से तो एक साधारण से प्रश्न – “नाखून क्यों बढ़ते हैं?” – से शुरू होता है, लेकिन वास्तव में यह एक गंभीर और व्यंग्यपूर्ण शैली में आधुनिक जीवन की जटिलता, मूल्यहीनता, बौद्धिक अहंकार, और सामाजिक विसंगतियों पर करारा प्रहार करता है।

यह निबंध एक अद्वितीय दार्शनिक दृष्टिकोण से भरा हुआ है जिसमें लेखक ने विज्ञान, साहित्य, तर्क, समाज और आत्मनिरीक्षण को एक सूत्र में पिरोते हुए यह बताया है कि किस प्रकार छोटे-छोटे प्रश्न हमें बड़े जीवन-चिंतन की ओर ले जा सकते हैं।

⇒ प्रारंभिक विचार: साधारण प्रश्न, असाधारण सोच लेखक निबंध की शुरुआत एक छोटे, मगर उलझाने वाले सवाल से करते हैं – “नाखून क्यों बढ़ते हैं?” वह कहते हैं कि यह प्रश्न एक बार उनसे किसी ने मज़ाक में पूछ लिया, लेकिन यह प्रश्न उन्हें भीतर तक सोचने पर मजबूर कर देता है।

लेखक मानते हैं कि कई बार साधारण प्रतीत होने वाले सवाल हमें गहरे जीवन-दर्शन तक पहुँचा देते हैं। विज्ञान इसका उत्तर दे सकता है, लेकिन लेखक इससे भी आगे जाकर जीवन की सच्चाई और समाज की बुनियादी समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

⇒ विज्ञान और तर्क का हास्यपूर्ण विश्लेषण लेखक विज्ञान द्वारा दिए गए नाखूनों के बढ़ने के उत्तर को सुनते हैं — जैसे कि कोशिकाओं की गति, रक्त संचार, मृत ऊतक आदि — लेकिन इन उत्तरों से संतुष्ट नहीं होते। वह व्यंग्यपूर्वक कहते हैं कि विज्ञान केवल शरीर की मशीन समझाता है, लेकिन भावना, दर्द, स्मृति और चिंतन के स्तर पर विज्ञान मौन है।

उनका कहना है कि अगर कोई व्यक्ति बहुत क्रोधित हो, दुखी हो, या किसी बड़ी मानसिक पीड़ा से गुजर रहा हो, तब भी उसके नाखून बढ़ते रहते हैं। यानी शरीर अपनी गति से चलता है, चाहे मन की स्थिति कुछ भी हो। इसी से लेखक को यह प्रतीत होता है कि मनुष्य की चेतना और उसका शरीर दो अलग-अलग दुनियाएं हैं।

⇒ जीवन की असंवेदनशीलता का प्रतीक: नाखून लेखक के अनुसार, नाखूनों का बढ़ना असंवेदनशीलता (Sensitivity) का प्रतीक है। नाखून मृत कोशिकाओं से बने होते हैं – यानी वे बिना किसी अनुभूति के बढ़ते रहते हैं। इसी तरह, आज का समाज भी संवेदना-विहीन होता जा रहा है – लोग एक-दूसरे की तकलीफों, भावनाओं और पीड़ा के प्रति उपेक्षा और निर्ममता दिखा रहे हैं।

लेखक इसे आधुनिक युग की एक गहरी समस्या बताते हैं कि मनुष्य अब केवल भौतिक सुख-सुविधाओं और प्राप्तियों में लिप्त हो गया है। उसके भीतर की कोमलता, करुणा, और दया धीरे-धीरे समाप्त हो रही है — जैसे नाखून, जो दिखते तो हैं, पर अंतरात्मा से शून्य होते हैं।

⇒व्यक्ति और समाज के बीच दूरी द्विवेदी जी आगे कहते हैं कि आज का आदमी दूसरों की पीड़ा से अंजान है। उसे दूसरों के दुख में कोई रुचि नहीं है। यह स्थिति उनके अनुसार “नाखूनों के बढ़ने” जैसी है — यह बिना कारण, बिना उद्देश्य, और बिना भावना के लगातार बढ़ते जाना है।

वे कहते हैं कि अगर कोई मर भी जाए, तो बाकी दुनिया पर फर्क नहीं पड़ता – जैसे किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद भी उसके नाखून कुछ समय तक बढ़ते रहते हैं। यह एक गहरी दार्शनिक व्याख्या है कि संवेदना मर चुकी है, लेकिन समाज यंत्रवत चलता जा रहा है

ज्ञानियों की स्थिति पर कटाक्ष लेखक बौद्धिक वर्ग यानी पढ़े-लिखे विद्वानों, वैज्ञानिकों और दार्शनिकों पर भी हल्के-फुल्के व्यंग्य करते हैं। वे कहते हैं कि ये लोग नाखून के बढ़ने जैसे विषय पर भी शोध कर सकते हैं, ग्रंथ लिख सकते हैं, परंतु मूल प्रश्न — जीवन के अर्थ और मानवता के महत्व — पर मौन हैं।

द्विवेदी जी ज्ञानियों की उस प्रवृत्ति पर भी प्रहार करते हैं जो बात को जटिल बनाकर, उसके मूल उद्देश्य को भुला देते हैं।

⇒ व्यक्तिगत अनुभव और आत्ममंथन निबंध में लेखक स्वयं को एक चिंतनशील व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो आत्मनिरीक्षण करता है। वे सवाल करते हैं — क्या मैं भी वैसा ही हूं? क्या मेरी आत्मा भी उतनी ही कठोर और निर्जीव हो गई है, जैसे नाखून?

यह आत्मचिंतन हमें भी अपने भीतर झांकने पर मजबूर करता है — क्या हम अपने चारों ओर के लोगों के प्रति संवेदनशील हैं? क्या हम केवल स्वार्थ में लिप्त होकर जी रहे हैं?